उदित वाणी चांडिल :झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा राज्य के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में यहां की पौराणिक संस्कृति और सभ्यता की अमिट झलक इस त्यौहार में देखने को मिलती है। अलग- अलग क्षेत्र में लोग अलग- अलग नाम से इस त्यौहार को जानते हैं। कहीं भोक्ता पर्व, कहीं मंडा तो कहीं चड़क मंडा पूजा के नाम से इसे जाना जाता है। भक्ति, आस्था और लोगों के हैरतअंगेज कारनामे का संयुक्त प्रदर्शन चड़क पूजा में देखने को मिलता है। भगवान भोले शंकर इस पर्व में मुख्य आराध्य देवता होते हैं, जिनकी लोग बड़े ही भक्ति भाव से लीन होकर पूजा- अर्चना करते हैं। और कई घंटे तक निर्जला उपवास में रहकर अपने पीठ में हंसते- गाते सुई की कील भोंकवाकर उसमें रस्सी के सहारे करीब 30-35 फीट ऊंचे लकड़ी के बने विशेष तरह के खूंटे के सहारे ऊपर में घूमकर अपनी परीक्षा और ईश्वर भक्ति का अद्भुत प्रदर्शन करते हैं।वहीं चड़क पूजा के अवसर पर चांडिल प्रखण्ड के रुचाप पंचायत अंतर्गत हिरिमिली में शनिवार को भगता टांगान कार्यक्रम का अयोजन किया गया। जहां अपनी श्रद्धा से भक्तगण अपने पीठ पर कील भोंकवाकर खूंटा के सहारे झूलते और खुशी से झूमते गाते नजर आए। उक्त विषय पर सार्वजनिक शिव पूजा एवं चड़क पूजा समिति हिरिमिली के सचिव नीतू सिंह सरदार ने कहा की यह पूजा और परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है जो आज भी विधि विधान के साथ पुरोहित ज्योतिलाल पांडेय के दिशा निर्देश पर पूजा अर्चना के साथ संपन्न कराया जाता है। पूजा के अंतिम दिन यानी की तेल हल्दी के दिन बली की भी प्रथा है। श्रद्धालु पूजा पाठ के दौरान बाबा के समक्ष हाथ जोड़कर मनोकामना रखते हैं, भक्तों की मनोकामना पूर्ण होने पर वे तेल हल्दी यानी पर्व के अंतिम दिन बाबा के दरबार पर चढ़ावा चढ़ाते हैं। इस अवसर पर मांगी गई मन्नत के मुताबिक बकरे की बली भी दी जाती है।जनकारी के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में कई मायने में इस त्यौहार को अहम माना जाता है। कहीं- कहीं तो धधकते अंगारों में भी भक्त चलकर अपनी भक्ति की अग्नि परीक्षा देते हैं। इसी त्यौहार के बाद लोग नए पत्ते और नए फल को साल में पहली बार अपना निवाला भी बनाना शुरू करते हैं। अनेक क्षेत्रों में इस दौरान भक्तों की हैरतअंगेज कारनामे को देखने के लिए बड़ी संख्या में भीड़ जुटती है। भक्त अपने पीठ, जीभ, गला, पैर आदि में कील भौंकवाकर भी एक दवाई तक नहीं लेते और जल्द ही सबकुछ ठीक हो जाता है। सामान्यतः लोग एक सुई या पिन चुभने पर टेटनस की सुई लेते हैं , लेकिन यह ईश्वर भक्ति का अद्भुत कारनामा ही है जो ये अपने दर्द का एहसास तक नहीं करते। सदियों से चली आ रही इस परंपरा के निर्वहन को अच्छी बारिश, फसलों के उपज और सुख-समृद्धि के लिए किया जाता है। इस त्यौहार में बड़ा ही कठिन व्रत होता है और व्रत के दौरान पूरी तरह सादगी और सात्विक होकर कई कठोर नियमों का पालन भी करना होता है ।झारखण्ड के सरायकेला – खरसावां बोकारो, धनबाद, रामगढ़, हजारीबाग, खूंटी और रांची सहित कई क्षेत्रों में चैत्र माह में होता है। इसी प्रकार पश्चिम बंगाल और उड़िया सहित अन्य राज्यों के ग्रामीण इलाके में भी इस त्यौहार की परंपरा का निर्वहन किया जाता है ।
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