उदित वाणी, प्रयागराज: महाकुंभ 2025 के भव्य आयोजन में पीपे के पुलों ने संगम क्षेत्र और अखाड़ा क्षेत्र को जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इन पुलों के माध्यम से श्रद्धालुओं को सहज आवागमन के साथ-साथ 13 अखाड़ों के भव्य रथ, हाथी-घोड़े और 1,000 से अधिक वाहनों का सुचारु संचालन सुनिश्चित हुआ.
15 महीनों में तैयार हुए 30 पीपे के पुल
अगस्त 2023 में इस विशाल परियोजना की शुरुआत हुई. 14-14 घंटे की मेहनत के बाद 1,000 मजदूरों, अभियंताओं और अधिकारियों ने अक्टूबर 2024 तक 30 पीपे के पुलों का निर्माण पूरा किया. इन पुलों में 2,213 लोहे के विशाल खोखले पांटून का उपयोग हुआ, जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है.
पीपे के पुल: निर्माण की अनूठी प्रक्रिया
गंगा नदी पर बने इन पुलों के निर्माण में पांटून को क्रेनों की मदद से पानी में उतारा गया. इसके बाद इन पर गर्डर रखकर नट और बोल्ट से सुरक्षित किया गया. पुल की सतह पर चकर्ड प्लेटें लगाई गईं ताकि वाहनों और श्रद्धालुओं के लिए मजबूत सतह बनाई जा सके.
आर्किमिडीज का सिद्धांत: तैरते पांटून का रहस्य
5 टन वजन वाले पांटून पानी में तैरते हैं क्योंकि वे अपने द्वारा हटाए गए पानी के बराबर भार का प्रतिरोध झेलते हैं. इस सिद्धांत के आधार पर, ये पांटून 5 टन तक का भार सहन करने में सक्षम हैं.
17.31 करोड़ की लागत, नागवासुकी पुल सबसे महंगा
30 पीपे के पुलों के निर्माण में कुल 17.31 करोड़ रुपये की लागत आई. नागवासुकी मंदिर से झूसी तक बने पुल पर 1.13 करोड़ रुपये खर्च हुए, जो सबसे महंगा पुल है.
ढाई हजार साल पुरानी तकनीक का इस्तेमाल
पीपे के पुलों की तकनीक 2,500 साल पुरानी है. पहली बार 480 ईसा पूर्व में फारस के सम्राट ज़र्क्सीस प्रथम ने इसका उपयोग किया था. भारत में पहला पीपे का पुल 1874 में हुगली नदी पर बनाया गया था.
महाकुंभ के बाद पुलों का दोबारा उपयोग
महाकुंभ के समापन के बाद इन पुलों को अलग कर प्रयागराज और अन्य जिलों में संग्रहित किया जाएगा. कुछ पुलों का उपयोग उत्तर प्रदेश के अन्य हिस्सों में अस्थायी पुलों के रूप में किया जाएगा.
महाकुंभ 2025 में पीपे के पुलों ने जहां श्रद्धालुओं को सुविधाएं दीं, वहीं यह प्राचीन और आधुनिक तकनीक का अद्भुत संगम भी प्रस्तुत करते हैं.
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