उदित वाणी, मुंबई: सिनेमा को समाज का दर्पण कहा जाता है, लेकिन अनंत महादेवन की फिल्म फुले इस दर्पण को नए कोण से दिखाती है. यह एक ऐसे युग की गाथा है जहाँ समाज का वर्चस्व कुछ वर्गों के पास था और शिक्षा, सम्मान तथा समरसता जैसे मूल्य वंचितों से कोसों दूर थे.अनंत महादेवन ने अपनी जवानी के दिनों में अभिनय और निर्देशन दोनों में प्रयोग किए. मी सिंधुताई सपकाल से शुरू हुआ बायोपिक का उनका सफर फुले तक पहुंचा. यह फिल्म उन ज्योतिराव फुले की कहानी कहती है, जिन्होंने पहली बार ‘दलित’ शब्द का सार्वजनिक प्रयोग किया और जिनके जीवन संघर्ष ने सामाजिक क्रांति की इबारत लिखी.
जब फूल उगाने वाला अदृश्य बना दिया गया
फिल्म कलाकार प्रतीक गांधी, पत्रलेखा, विनय पाठक, सुशील पांडे जैसे कलाकारों से सजी है. फिल्म की पूरी पृष्ठभूमि में गेंदा फूल दिखाई देता है—पीले चटख रंग वाला, जो समाज के देवताओं और सजावट का हिस्सा तो बनता है, लेकिन जिसे उगाने वाले को समाज कभी सम्मान नहीं देता. यह प्रतीक है उस विडंबना का, जिसमें फूल पूजित है पर फूलवाला नहीं.ज्योतिराव के परिवार का सरनेम ‘फुले’ भी फूलों की खेती से जुड़ा है. यह कहानी है उनके द्वारा शुरू की गई उस लड़ाई की, जिसने शिक्षा और समानता को समाज की मुख्यधारा में लाने की कोशिश की.
पहली महिला शिक्षिकाएं, और समाज का प्रतिरोध
फिल्म दिखाती है कि कैसे सावित्रीबाई फुले ने कूड़े के बीच से निकलकर लड़कियों को शिक्षित करना शुरू किया. उन्हें एक ब्राह्मण परिवार ने स्कूल चलाने के लिए स्थान दिया, लेकिन हिंदू पुजारियों और मुस्लिम मौलवियों के विरोध ने उस प्रयास को बार-बार कुचला।जानलेवा हमलों से लेकर सामाजिक बहिष्कार तक, फुले दंपती ने वह सब झेला जिसे आज भी समाज अनदेखा करना पसंद करता है. सावित्रीबाई के साथ फातिमा नाम की युवती भी जुड़ती है, और दलित साहित्य की नींव उनके स्कूल की एक छात्रा के निबंध से पड़ती है.
जब धर्म के नाम पर मिला था न्यौता, लेकिन उन्होंने ठुकराया
फिल्म उस कालखंड को भी छूती है जब ईसाई मिशनरियों ने फुले को धर्मांतरण का प्रस्ताव दिया था. लेकिन उन्होंने वह रास्ता नहीं चुना. उन्होंने दिखाया कि समाज में समानता का संघर्ष केवल जातिगत नहीं, बल्कि आर्थिक और शैक्षिक भी है.ज्योतिराव फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की. उनकी सोच में केवल दलित ही नहीं थे, बल्कि ब्राह्मणों सहित सभी वर्गों के लोग शामिल थे. उन्होंने अछूत कहे जाने वालों के लिए अपने घर के आंगन में कुआं खुदवाया और एक अनाथ विधवा के बच्चे को गोद लिया.
फिल्म या पाठ्यपुस्तक? दोनों बन सकती है
इस फिल्म में निर्देशक अनंत महादेवन ने जो साहस दिखाया है, वह सराहनीय है. एक ब्राह्मण निर्देशक द्वारा अपने ही समाज के कृत्यों की सच्चाई को सामने रखना आज के समय में दुर्लभ है.फिल्म यह सवाल भी उठाती है कि यदि ‘महात्मा’ की उपाधि सबसे पहले किसी को दी गई थी तो वह मोहनदास गांधी नहीं, बल्कि ज्योतिराव फुले थे. फिर भी पाठ्यक्रमों में उनका नाम न होना एक बड़ी विडंबना है.
अभिनय और तकनीक: समर्थ और सटीक
प्रतीक गांधी और पत्रलेखा ने अपने अभिनय से फिल्म को जीवंत बनाया है. खासकर वृद्ध ज्योतिराव के रूप में प्रतीक की परिपक्वता उल्लेखनीय है. हालांकि शुरुआत में उनकी संवाद अदायगी थोड़ी एकरस लगती है, लेकिन बाद में किरदार में पूरी तरह घुलमिल जाते हैं.पत्रलेखा को सावित्रीबाई के रूप में स्वीकार करने में दर्शकों को थोड़ा समय लग सकता है, लेकिन उनका प्रयास भी ईमानदार है. सहायक कलाकारों में विनय पाठक, एलेक्स ओ’नील और सुशील पांडे प्रभाव छोड़ते हैं. सिनेमैटोग्राफर सुनीता राडिया और संपादक रौनक फडनिस का तकनीकी योगदान भी फिल्म की ताकत बनता है.
क्या यह फिल्म जीएसटी से मुक्त होनी चाहिए?
‘फुले’ जैसी फिल्में केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक शिक्षा का माध्यम बन सकती हैं. इसे स्कूलों में मुफ्त दिखाया जाना चाहिए और कम से कम टैक्स से तो मुक्त किया ही जाना चाहिए.राष्ट्रीय पुरस्कारों में इस फिल्म को क्या स्थान मिलता है, यह इस बात की कसौटी भी बन सकता है कि हमारे निर्णायक वर्ग कितना स्वतंत्र और निष्पक्ष सोच रखता है.
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