धर्म की रक्षा करने और धर्म को संसार में सर्वोच्च स्थान प्रदान करने के उद्देश्य से स्थापित सिख धर्म के दस गुरुओं में से एक गुरु हरगोविंद सिंह सिखों के पांचवें गुरु अर्जुनदेव सिंह के पुत्र थे, जिन्होंने सिखों को अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण लेने के लिए प्रेरित किया और सिख पंथ को योद्धा चरित्र प्रदान किया.
सिखों के छठें गुरू व सिख इतिहास में दल-भंजन योद्धा के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त गुरू हरगोबिन्द सिंह ने सिख धर्म, संस्कृति एवं इसकी आचार-संहिता में अनेक परिवर्तनों को स्थान देकर और उन्हें मजबूती प्रदान की, तथा अपनी दिव्य-दृष्टि से सुरक्षा प्रदान कर उसे फलने-फूलने का अवसर भी दिया.
अपने पिता सिखों के पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव के बलिदान के आदर्श को उन्होंने न केवल अपने जीवन का उद्देश्य बनाया, बल्कि उनके द्वारा प्रारम्भ किये गये महान कार्यों को सफलता पूर्वक सम्पूर्ण करने के लिए आजीवन अपनी प्रतिबद्धता भी दिखलाई.
सिखों के गुरु छट्ठे बादशाह के प्रसिद्धि का मुख्य कारण अकाल तख़त का निर्माण, मुगलों के विरुद्ध युद्ध में शामिल होने वाले पहले गुरू के रूप में, सिखों को युद्ध कलाएं सीखने और सैन्य परीक्षण के लिये प्रेरित करने, मीरी पीरी की स्थापना और रोहिला की लड़ाई,करतारपुर, अमृतसर (1634), हरगोबिंदपुर की लड़ाई, गुरुसर तथा कीरतपुर की लड़ाईयों में प्रत्यक्ष भागीदारी था.
क्रांतिकारी योद्धा गुरु हर गोबिन्द सिंह का जन्म का जन्म 21 आषाढ़ (वदी 6) संवत 1652 तदनुसार 19 जून, 1595 में भारत के पंजाब प्रदेश में गुरू की वडाली, अमृतसर में तथा मृत्यु 19 मार्च 1644 को कीरतपुर साहिब, भारत में हुआ. इनके पिता गुरु अर्जन देव व माता गंगा जी थी.
इनके पूर्वाधिकारी गुरु अर्जुन देव तथा उत्तराधिकारी गुरु हरिराय थे. इनके जीवन साथी माता नानकी, माता महादेवी और माता दामोदरी थीं. बच्चे बाबा गुरदिता, बाबा सूरजमल, बाबा अनि राय, बाबा अटल राय, गुरु तेग बहादुर और बीबी बीरो थी . क्रांतिकारी योद्धा सिखों के षष्टम गुरु के जन्मोत्सव को गुरु हरगोबिंद जयन्ती के रूप में मनाया जाता है.
इस शुभ अवसर पर गुरुद्वारों में भव्य कार्यक्रम सहित गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ किया जाता है. अंत: सामूहिक भोज (लंगर) का आयोजन किया जाता है. नानक शाही पंचांग व अन्य सामान्य पंचांगों के अनुसार साल 2022 में गुरु हरगोबिंद जयन्ती 15 जून को मनाई जाएगी.
गुरु हरगोबिन्द साहिब की शिक्षा- दीक्षा महान सिख विद्वान भाई गुरदास की देख-रेख में हुई. गुरु जी को बराबर बाबा बुड्डाजी का भी आशीर्वाद प्राप्त रहा. लगातार विपरीत परिस्थितियों व बदलते हुए हालातों के मद्देनजर गुरु हरगोबिन्द साहिब ने शस्त्र एवं शास्त्र की शिक्षा भी ग्रहण की. वह महान क्रांतिकारी योद्धा भी थे.
विभिन्न प्रकार के शस्त्र संचालित करने का उन्हें अद्भुत अभ्यास था. गुरु हरगोबिन्द साहिब का चिन्तन भी क्रान्तिकारी था. उनकी इच्छा थी कि सिख जाति शान्ति, भक्ति एवं धर्म के साथ-साथ अत्याचार एवं जुल्म के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए भी सशक्त बने. अध्यात्म चिन्तन को दर्शन की नई भंगिमाओं से जोडऩे की उनकी परम इच्छा थी.
गुरु अर्जन देव जी जहाँगीर के आमंत्रण पर लाहौर चलने से एक दिन पूर्व 29 ज्येष्ठ संवत 1663 (25 मई 1606) को हरगोबिंद सिंह जी को मात्र 11 वर्ष में गुरूपद सौंप दिया. इसके बाद तो गुरु हरगोबिंद सिंह ने सिख धर्म में वीरता के नये उदाहरण प्रस्तुत किये.
सिख पन्थ की गुरु- गद्दी संभालते ही उन्होंने मीरी एवं पीरी की दो तलवारें ग्रहण की- एक तलवार धर्म के लिए तथा दूसरी तलवार धर्म की रक्षा के लिए. मीरी और पीरी की दोनों तलवारें उन्हें बाबा बुड्डाजी ने पहनाई. और यहीं से सिख इतिहास ने एक नया मोड़ लेना शुरू कर दिया तथा गुरु हरगोबिन्द साहिब ने मीरी-पीरी के संकल्प के साथ सिख-दर्शन की चेतना को नए अध्यात्म दर्शन के साथ जोड़ दी.
इस प्रक्रिया में राजनीति और धर्म एक दूसरे के पूरक बने. गुरु जी की प्रेरणा से श्री अकाल तख्त साहिब का भी भव्य अस्तित्व निर्मित हुआ. देश के विभिन्न भागों की संगत ने गुरु जी को भेंट स्वरूप शस्त्र एवं घोडे देने प्रारम्भ किए. अकाल तख्त पर कवि और ढाडियों ने गुरु-यश व वीर योद्धाओं की गाथाएं गानी प्रारम्भ की.
इसका असर यह हुआ कि लोगों में मुगल सल्तनत के प्रति विद्रोह जागृत होने लगा. गुरु हरगोबिन्द साहिब नानक राज स्थापित करने में सफलता की ओर बढऩे लगे. मुगल बादशाह जहांगीर ने सिखों की इस मजबूत होती हुई स्थिति को खतरा मानकर गुरु हरगोबिंद सिंह को ग्वालियर में कैद कर बन्दी बना लिया.
इस किले में मुगल सल्तनत के और भी कई राजा पहले से ही कारावास भोग रहे थे. गुरु हरगोबिन्द साहिब लगभग तीन वर्ष ग्वालियर के किले में बन्दी रहे. महान सूफी फकीर मीयांमीर गुरु घर के श्रद्धालु थे. जहांगीर की पत्नी नूरजहां मीयांमीर की सेविका थी.
इन लोगों ने भी जहांगीर को गुरु जी की महानता और प्रतिभा से परिचित करवाया. बाबा बुड्डा व भाई गुरदास ने भी गुरु साहिब को बन्दी बनाने का विरोध किया. इस पर जहांगीर ने केवल गुरु जी को ही ग्वालियर के किले से आजाद नहीं किया, बल्कि उन्हें यह स्वतन्त्रता भी दी कि वे 52 राजाओं को भी अपने साथ लेकर जा सकते हैं.
बाद में वे 52 राजाओं के साथ कारगर से मुक्त हुए. इसीलिए सिख इतिहास में गुरु जी को बन्दी छोड़ दाता कहा जाता है. ग्वालियर में इस घटना का साक्षी गुरुद्वारा बन्दी छोड़ है. गुरु हरगोबिंद सिंह बारह वर्षों तक कैद में रहे लेकिन इस दौरान उनके प्रति सिखों की आस्था और मज़बूत हुई.
मीरी- पीरी के सम्बन्ध में एक कथा प्रचलित है. गुरु हरगोबिंद साहिब जब कश्मीर की यात्रा पर थे, तब उनकी मुलाकात माता भाग्भरी से हुई थी, जिन्होंने पहली मुलाकात पर उनसे पूछा कि क्या आप गुरु नानक देव हैं क्योंकि उन्होंने गुरु नानक देव को नहीं देखा था.
उन्होंने गुरु नानक देव के लिए एक बड़ा सा चोला (एक पहनने का वस्त्र) बनाया था, जिसमें 52 कलियाँ थी. यह चोला उन्होंने उनके बारे में ये सुनकर कि उनका शरीर थोडा भारी है, इसलिए वस्त्र थोडा बड़ा बनाया था. माता की भावनाओं को देखते हुए गुरु साहिब ने वह चोला उनसे लेकर पहन लिया.
गुरु साहिब जब ग्वालियर के किले से मुक्त किये गए तो उन्होंने यही चोला पहन रखा था, जिसकी 52 कलियों को पकड़ कर किले की जेल में बंद सारे 52 राजा एक- एक कर बाहर आ गए, तभी से गुरु हरगोबिन्द साहिब जी दाता बन्दी छोड़ कहलाये. कैद से रिहा होने पर उन्होंने शाहजहां के खिलाफ बगावत कर दी और 1628 ईस्वी में अमृतसर के निकट संग्राम में शाही फौज
को हरा दिया.
अपने जीवन मूल्यों पर दृढ़ रहते गुरु जी ने शाहजहां के साथ चार बार टक्कर ली. युद्ध के दौरान सदैव शान्त, अभय एवं अडोल रहने वाले गुरु हरगोविंद के पास इतनी बडी सैन्य शक्ति थी कि मुगल सिपाही प्राय: भयभीत रहते थे. अपनी इस विशाल सेना से गुरु जी ने मुगल सेना को कई बार कड़ी पराजय दी.
मुगलों की अजेय सेना को गुरु हरगोबिंद सिंह ने चार बार हराया था. अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित आदर्शों में गुरु हरगोबिंद सिंह ने एक और आदर्श जोड़ते हुए कहा कि सिखों का यह अधिकार और कर्तव्य है कि अगर जरुरत हो तो वे तलवार उठाकर भी अपने धर्म की रक्षा करें.
गुरु हरगोबिन्द साहिब के द्वारा अपने व्यक्तित्व और कृत्तित्व से पैदा की गई इस अदम्य लहर ने आगे चलकर सिख संगत में भक्ति और शक्ति की नई चेतना पैदा की. गुरु जी ने अपनी सूझ-बूझ से गुरु घर के श्रद्धालुओं को सुगठित भी किया और सिख समाज को नई दिशा भी प्रदान की. अकाल तख्त साहिब सिख समाज के लिए ऐसी सर्वोच्च संस्था के रूप में उभरा, जिसने भविष्य में सिख शक्ति को केन्द्रित किया तथा उसे अलग सामाजिक और ऐतिहासिक पहचान प्रदान की. इसका श्रेय गुरु हरगोबिन्द साहिब को ही जाता है.
अत्यंत परोपकारी व योद्धा गुरु हरगोबिन्द साहिब का जीवन दर्शन जन-साधारण के कल्याण से जुड़े होने के कारण उनके समय में गुरमति दर्शन राष्ट्र के कोने-कोने तक पहुंचा. श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के महान संदेश ने गुरु-परम्परा के उन कार्यो को भी प्रकाशमान बनाया जिसके कारण भविष्य में मानवता का महा कल्याण हुआ.
गुरु जी के इन अथक प्रयत्नों के कारण सिख परम्परा एक नया रूप लेकर अपनी विरासत की गरिमा को पुन: नये सन्दर्भो में परिभाषित कर रही थी . गुरु जी के व्यक्तित्व और कृत्तित्व का गहरा प्रभाव पूरे परिवेश पर भी पडऩे लगा था. गुरु हरगोबिन्दसाहिब जी ने अपनी सारी शक्ति हरमन्दिरसाहिब व अकाल तख्त साहिब के आदर्श स्थापित करने में लगाई.
गुरु हरगोबिन्दसाहिब प्राय: पंजाब से बाहर भी सिख धर्म के प्रचार हेतु अपने शिष्यों को भेजा करते थे. जिससे पंजाब के बाहर भी सिख धर्म का प्रचार हुआ. गुरु हरगोबिन्दसाहिब ने सिख जीवन दर्शन को सम-सामयिक समस्याओं से केवल जोड़ा ही नहीं, बल्कि एक ऐसी जीवन दृष्टि का निर्माण भी किया जो गौरव पूर्ण समाधानों की संभावना को भी उजागर करता था. सिख लहर को प्रभावशाली बनाने में गुरु जी का अद्वितीय योगदान रहा.
गुरु हरगोबिंद सिंह केवल धर्मोपदेशक ही नहीं, वरन कुशल संगठनकर्ता भी थे. गुरु हरगोबिंद सिंह ने ही अमृतसर में अकाल तख्त (ईश्वर का सिंहासन) का निर्माण किया. उन्होंने अमृतसर के निकट एक किला बनवाया और उसका नाम लौहगढ़ रखा. उन्होंने बड़ी कुशलता से अपने अनुयायियों में युद्ध के लिए इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास पैदा किया.
कीरतपुर साहिब की स्थापना भी इन्होने की. स्वयं का अंतिम समय नजदीक देख कर गुरु जी ने संगत को आत्मा-परमात्मा संबंधी उपदेश देते हुए बताया कि शरीर नश्वर है, परंतु जो सर्वव्यापक है तथा अविनाशी सर्व निरंकारी आत्मा गुरु का रूप है, उसको पहचानें.
उन्होंने सिख धर्म में एक नई क्रांति को जन्म दिया जिस पर आगे चलकर लड़ाका सिखों की विशाल सेना तैयार हुई. सन 1644 ईस्वी में कीरतपुर (पंजाब) भारत में उनकी मृत्यु हो गई. लेकिन गुरु हरगोबिन्द सिंह ने सिख धर्म को जरूरत के समय शस्त्र उठाने की ऐसी सीख दी जो आज भी सिख धर्म की पहचान है.
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