उदित वाणी जमशेदपुर:क्षमता की कोई सीमा नहीं होती, आचरण की सीमा होती है. लेकिन हमने अपनी क्षमता की सीमा बांध रखी है. जबकि मनुष्य में कुछ करने की क्षमता और संभावनाएं अनंत है. शुक्रवार को जमशेदपुर पहुंचे भारतीय मूल के अमेरिकी निवासी विजय राजवैद्य कहते हैं-हम भारतीय को सबसे पहले अपनी क्षमता की पहचान जरूरी है. हम 60 साल के बाद अपने आप को जिंदगी से रिटायर समझ लेते हैं और अपने आप को निकम्मे मान लेते हैं. जबकि हम अपनी जिंदगी के अनुभव को समाज और परिवार के साथ साझा कर सकते हैं और समाज और देश की प्रगति में अहम भूमिका निभा सकते हैं. बकौल विजय राजवैद्य, इसी क्षमता का अहसास कराने के लिए मैं देश के 12 ज्योर्तिलिंग की पैदल यात्रा पर निकला हूं. मैं 70 साल का हूं और पिछले 40 साल से अमेरिका की सिलिकन वैली में रह रहा हूं. पेशे से इंजीनियर रहा हूं, लेकिन अपने धर्म और संस्कृति को लेकर काफी श्रद्धा रही है. इसकी वजह यह भी है कि मेरी पढ़ाई-लिखाई उज्जैन जैसे शहर से हुई, जो ईसा से 500 साल पहले देश की बौद्धिक राजधानी हुआ करती थी. यहीं पर कालीदास हुए, मेघदूत की रचना हुई और महाकालेश्वर का मंदिर भी है.
खंडवा के राजवैद्य परिवार से नाता
खंडवा के राजवैद्य परिवार से संबंध रखने वाले विजय ने इंजीनियरिंग करके आगे की पढ़ाई अमेरिका से की. वहीं पर सन माइक्रोसिस्टम में लंबे समय तक काम किया. पूरा परिवार अमेरिका में ही बस गया है, लेकिन भारत के साथ लगाव कम नहीं हुआ. बताते हैं-इस यात्रा के करने के पीछे मकसद यह है कि लोग अपनी क्षमता को पहचानें. दूसरी कि हर व्यक्ति को पढ़ना-लिखना जरूरी है. वे जहां भी पढ़ाई कर रहे हैं, अगर दृढ़ संकल्प होकर पढ़ें, तो जीवन की उंचाई छू सकते हैं. साथ ही पर्यावरण बोध के साथ ही लोगों में सांस्कृतिक बोध भी जरूरी है.
ब्रेक लेकर करेंगे 12 ज्योर्तिलिंग की यात्रा
बकौल विजय राजवैद्य, 12 ज्योर्तिलिंग के पहले चरण में मैंने महाकालेश्लवर से ओंकारेश्वर की पैदल यात्रा की. इसके बाद मैंने ब्रेक लिया है. इस यात्रा में मुझे 9 हजार किलोमीटर पैदल चलना है. दो-तीन साल लगेंगे इस यात्रा के पूरा करने में, क्योंकि हम बीच-बीच में अमेरिका भी जाते रहेंगे. इस यात्रा के दौरान हम लोगों से मिलेंगे और उनसे जुड़ने की कोशिश करेंगे. मैंने 6 मई को यह यात्रा शुरू की थी. विजय जमशेदपुर में सर्किट हाउस एरिया में टीएसएन सिन्हा के घर ठहरे हैं.
क्या विज्ञान और धर्म परस्पर विरोधी है?
इस सवाल पर विजय राजवैद्य कहते हैं, मैं साइंस का छात्र रहा हूं. भारत के साथ ही अमेरिका में भी विज्ञान और इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि धर्म और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं. दुख इस बात का है कि विज्ञान के लोग ऐसा समझते हैं. जबकि विज्ञान ने जो खोज की है, वह नगण्य है. अभी भी धर्म में जो बातें हैं, वह काफी वैज्ञानिक हैं और बेहद साधारण तरीके से लोगों को बताई गई हैं. मैं धार्मिक हूं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं अवैज्ञानिक हूं.
तो फिर आपने अमेरिका जाना क्यों सही समझा?
अमेरिका प्रोफेशनली हमसे आगे हैं. जब 1982 में मैं अमेरिका गया तो उस वक्त भारत में विज्ञान की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी. आज सॉफ्टवेयर में भारत का दबदबा है. भारतीय विभिन्न अमेरिकी कंपनियों के शीर्ष पदों पर हैं. दूसरी बात है कि अमेरिका में अवसर काफी है आगे बढ़ने का और बेहतर सुख-सुविधाएं तो है ही.
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