टी रमेश
उदित वाणी, जमशेदपुर : मैं जमशेदपुरिया पत्रकारिता हूं. नियमित रूप से व पूरी निरंतरता के साथ पाठकों के साथ मेरा जुड़ाव 22 अगस्त 1980 को हुआ था. कह सकते हैं कि मेरी काल गणना के आरंभ की तिथि यही है.
इस ऐतिहासिक दिन को सिंहभूम (कोल्हान) की धरती और वैश्विक पटल पर स्टील सिटी की पहचान रखने वाले जमशेदपुर के जुगसलाई से तत्कालीन अखंड बिहार के मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र के हाथों हिन्दी दैनिक उदित वाणी का लोकार्पण हुआ. इसके साथ ही जमशेदपुर में शुरू हुआ पहले नियमित हिन्दी दैनिक का प्रकाशन. जो आज एक व्यापक बाजार और असीम संभावनाओं का वृहद आकार ग्रहण कर चुका है. इस तरह से देखा जाए तो जमशेदपुर में नियमित पत्रकारिता अपने स्वर्ण जयंती की ओर कदम बढ़ा चुकी है.
मैं तब बहुत ही आनंदित और उत्साह से लवरेज हो उठता हूं जब कोल्हान की धरती पर कोई अखबार या मीडिया संस्थान अपनी वर्षगांठ मना रहा होता है. इसीलिए 22 अगस्त की तिथि आते ही मेरे भीतर का जज्बा और उत्साहि हो जाता है और कुछ कर गुजरने की उम्मीदें हिलोरें मारने लगती हैं. मेरा दायरा बहुत बड़ा है. मेरे स्कूल से निकले पत्रकारिता के विद्यार्थी देश-विदेश में अपनी कामयाबी का झंडा गाड़े हुए हैं. प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रोनिक चैनल तक और वेब पोर्टल से लेकर यूट्यूब चैनल और सोशल मीडिया तक. हर जगह आप जमशेदपुरिया स्कूल ऑफ जर्नलिज्म के संस्कारों में पले-बढ़े पत्रकारों को देख सुन पढ़ सकते हैं.
इस कसौटी पर देखा जाए तो मेरे लिए चारों तरफ सावन ही सावन है. मेरा रूप भी बदला है, स्वरूप भी बदला है, संभावनाएं भी बदली हैं और बहुत कुछ बदलने की आस भी बनी हुई है. एक नजरिए से देखा जाए तो किसी के जीवन में स्वर्णजयंती का बहुत ही अहम महत्व होता है. जिसे जीवन में किसी भी रूप में स्वर्ण जयंती मनाने का अवसर मिलता है उसकी तो बल्ले-बल्ले रहती है. तो भला मैं क्यों न अभी से अपने गोल्डन जुबिली को लेकर खुशी से न इतराऊं?
लेकिन एक कसक भी है. मुझे अपने सुनहरे दिनों की बहुत याद आती है. अभी मेरे पास सबकुछ है. नाम भी, पहचान भी, विस्तार का क्षेत्र भी, आय का स्रोत भी. रोजगान देने की संभावना भी और समय के साथ कदमताल करते हुए चलने की क्षमता भी. कभी दुनिया मुझे लोकल अखबार वाले शहर का मीडिया कहती थी. लेकिन मैं इसे अपना तौहीन नहीं मानता था. मेरा हौसला जेएन टाटा जी जैसा फौलादी था. मुझे विश्वास था कि कामयाबी एक दिन अवश्य मिलेगी. यदि सरकार में क्लास 1 की नौकरी छोड?र राधेश्याम अग्रवाल ने जमशेदपुर की धरती पर मेरा अवतरण नहीं कराया होता तो मैं इस रूप में आपसे कैसे रूबरू होता. इसलिए राधेश्याम जी अग्रवाल को बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएं.
अरे मैं अब मूल विषय पर लौटता हूं. हमारी शुरूआत के साथ जमशेदपुर में अखबार पढऩा सीखा. विज्ञापन देना जाना. और पे्रस विज्ञप्ति से लेकर विभिन्न आयोजनों को समाचार के रूप में प्रकाशन का अवसर पहचाना. इस तरह 1980 के दशक में मेरी विकास यात्रा रही. 1990 का दशक तो मेरे डंका बजाने का दौर था. उदित वाणी ने मेरे लिए इतना मजबूत आधार बना दिया कि दूसरे शहरों से बड़े-बड़े अखबार जमशेदपुर की ओर चमकती नजरों और लपलपाती जीभों से देखने लगे. वे अपने को यहां आने से रोक नहीं सके. राष्टï्रीय हिन्दी दैनिक आज से इसकी शुरूआत हुई. वह वाराणसी से चलकर आया. आवाज धनबाद से आया. कई नए अखबार जमशेदपुर से ही शुरू हुए. बाद में हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर का भी प्रकाशन स्थल मेरा जमशेदपुर बना.
1990 के दशक में उदित वाणी के जरिए मेरा सुनहरा काल वैश्विक पटल पर दिखा. राजनीतिक रिपोर्टिंग से लेकर ट्रेड यूनियन की खबरों तक को पाठकों के सरोकार के नजरिए से हमने परोसा. कारपोरेट रिपोर्टिंग के कखग से पाठकों को अवगत कराया. क्राइम की खबरों को घटनास्थल पर जाकर प्रस्तुत करने की परिपाटी का श्रीगणेश किया. कार्यक्रम के लाइव कवरेज को चलन में लाया. खबरों के आगे-पीछे देखने समझने की कला भी विकसित की जिसे आज के दौर में फॉलोअप के रूप में जाना जाता है. इस दौर में जमशेदपुरिया पत्रकारिता ने और भी बहुत कुछ किया. निडरता और निर्भिकता के मापदंड पर खुद को चौबीस कैरेट की तरह साबित किया. सत्ता से जुड़ी सूचनाओं और खबरों का सही आंकलन कर पाठकों के बीच जस का तस प्रस्तुत किया. यह दौर था जब जमशेदपुर भी बिहार का अंग हुआ करता था और ललू यादव जैसा प्रतापी राजा बिहार का मुख्यमंत्री हुआ करता था. लेकिन चारा घोटाला के भंडाफोड़ से लेकर सत्ता से लालू की विदाई तक के घटनाक्रम को जमशेदपुर मीडिया ने जिस कलेवर और अंदाज में प्रसतुत किया वह पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास की एक सुनहरे पन्नों में शोभा बढ़ाता है. इसी तरह जब केंद्र में खिचड़ी सरकार की प्रयोगशाला काम कर रही थी. जब देवगौड़ा, गुजराल जैसे प्रधानमंत्री आ-जा रहे थे तब भी हमने उसी बेबाकी से घटनाक्रम को देखा समझा और परखा. झारखंड अलग राज्य के आंदोलन में हमने भी हरसंभव योगदान दिया. इसीलिए जब वर्ष 2000 में झारखंड गठन की स्थिति बनी तो हमने पूरे घटनाक्रम को आशावादी नजरों के साथ प्रस्तुत कर बढ़त हासिल की.
कारपोरेट रिपोर्टिंग में सच के साथ कलम चलाकर हमने नेशनल मीडिया तक में सनसनी पैदा कर दी थी. उन दिनों विश्वस्तर के कारपोरेट लीडर और टाटा स्टील के सीएमडी रूसी मोदी का अपने टाटा घराने के साथ अनबन चल रही थी बाद में उन्होंने बदले की भावना से प्रेरित होकर टाटा घराने को सबक सिखाने के लिहाज से ट्रेड यूनियन से लेकर सियासत तक में अपनी दखल दी. लेकिन हमें गर्व है कि रूसी मोदी को हमने साफ शब्दों में बता दिया था कि ट्रेड यूनियन या सियासत आपके बस की बात नहीं. आपको कारपोरेट में ही केंद्रित रहना होगा. अंतत: हुआ भी ऐसा ही. इस कालखंड में हमने जनसरोकार के साथ भी जमकर जिया. जनता से जुड़. हर मुद्दे को उभरा. बात चाहे मानगो नये पुल के निर्माण की रही हो. स्टेशन रोड के मरम्ती कर रही हो. टाटा लीज क्षेत्र के विकास में गंगा बहाने की हो या मालिकाना हक के मुददे की. हमने इन मुद्दों को प्रमुखता से उभरा और बहुत हद तक अंजाम तक भी पहुंचाया. उरांव बस्ती शराब कांड को हमने राष्टï्रीय स्तर तक मुद्दा बनाया तो गणेशजी के दूध पीने की घटना के समय हमने अंधविश्वास पर भी प्रहार किया और साफ-साफ बताया कि गणेशजी के दूध पीने की घटना कोई दैवीय चमत्कार नहीं बल्कि विज्ञान के सर्फेसटेंशन का कमाल है.
क्या भूलूं क्या याद करूं. आज के दौर में अपनी पहचान से ही मुझे दूरी होने लगी है. एक समय था जब सूचना के अंदर की जानकारी के लिए लोग मुझे खोजा और पढ़ा करते थे आज मेरे दायरे को प्रेस विज्ञप्ति तक सिमटा दिया गया है.
राजनीतिक रिपोर्टिंग नेताओं की बयानबाजी तक सिमट गई है. कारपोरेट रिपोर्टिंग भी प्रेस विज्ञप्ति भर स्थान पा रही. ट्रेड यूनियन की चर्चा उसके चुनाव में या रक्तदान या भजन संध्या के आयोजनों तक सिमट गई है. जनसरोकार के मुद्दे भी अब नेताओं के श्रीमुख से निकल रहे हैं. घटनात्मक खबरों की रिपोर्टिंग भी रूटिंग टाइप में हो रही है. प्रशासन से जारी होने वाली प्रेस विज्ञप्ति अब डीसी बीट के काम को हल्का कर चुकी है और धर्म-अध्यात्म के कार्यक्रम भी इवेंट मैनेजरों की इच्छा और संसाधनों तक सिमट कर रह रहे हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य और सरोकार के अन्य विषय भी रूटिंग अंदाज में आ-जा रहे हैं. इसीलिए तो नई पीढ़ी के लिए मैं स्टीरियो टाइप की पहचान वाला बनता जा रहा. यह स्थिति मेरे लिए अकल्पनीय दुखद है. इसीलिए तो मैं कामना करता हूं, दुआ करता हूं, उम्मीद करता हूं, विश्वास करता हूं, आस करता हूं और प्रार्थना करता हूं कि कोई मेरा सुनहरा कालखंड लौटा दे और मैं फिर उसी समय में अपने को आत्मसात कर अपनी पत्रकारिता के फ्लेवर में मंत्रमुग्ध होकर रहूं. काश, कोई आकर बताता कि अबे, आज तेरी हेडिंग-(लालू चले, लालू 24 घंटे, गये गुजराल, नजरों के सामने झारखंड, दरवाजे पर झारखंड, झारखंड, गांव से चलकर शहर आएंगे रूसी मोदी, मधेपुरा में राजा का बज गया बाजा, दूध पिया तो ये हाल, बोल देंगे तो क्या होगा, थैंक्यू आजादी, आइ डिड माई थैंक्यू जमशेदपुर… जैसी) पाठकों पर कहर ढाह रही है. तू ब्लैक में बिक रहा है. क्या कमाल का फ्लेवर है तेरा. इसीलिए तो देश के बाकी जगहों का मीडिया तूझपर ईष्र्या भी करता और तूझ पर मरता भी है. आखिर में एक उम्मीद कि अपने स्वर्ण जयंती वर्ष की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहा उदित वाणी. मेरे सुनहरे दिन को लौटाने की दिशा में सकारात्मक आवाज करेगा. बाकी संस्थान धीरे-धीरे इसका वाहक बनेंगे.
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