86 साल पहले टाटा स्टील ने देश में पहली बार आज ही के दिन आरएंडडी विभाग की स्थापना की थी
उदित वाणी,जमशेदपुर: किसी भी कंपनी के लिए उसका अनुसंधान और विकास (रिसर्च एंड डेवलेपमेंट) विभाग बेहद अहम होता है. आज के तकनीक और प्रौद्योगिकी के दौर में आरएंडडी के बगैर वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिके रहना मुश्किल है. मगर टाटा स्टील के लीडरों ने भविष्य को देखते हुए आज से 86 साल पहले आज ही के दिन अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) विभाग का शुभारंभ किया था.
इस विभाग का औपचारिक रूप से उद्घाटन 14 सितंबर 1937 को टाटा स्टील के तत्कालीन चेयरमैन सर नौरोजी सकलातवाला द्वारा किया गया था. भारत में यह पहली बार था, जब किसी कंपनी ने आरएंडडी डिपार्टमेंट की स्थापना की थी. सर एम विश्वेश्वरैया को अनुसंधान एवं विकास के संस्थापकों में से एक माना जा सकता है. 1932 में एक बोर्ड मीटिंग के दौरान उन्होंने बताया कि उनके अनुभव के अनुसार यूरोप या अमेरिका में अनुसंधान के प्रावधान के बिना कोई बड़ी फैक्ट्री नहीं थी. इस तरह के शोध का मुख्य उद्देश्य लागत कम करना और उत्पादन बढ़ाना था.
ऐसे डिजाइन किए गये आरएंडडी भवन आर एंड डी भवन को दक्षता, सुविधा और लचीलापन प्रदान करने के लिए डिज़ाइन किया गया था. काम के लिए सीधी पहुँच प्रदान करने के लिए कमरे बनाए गए थे जो चौड़े गलियारों से जुड़े हुए थे. काम करने वाली मेजों और बेंचों को अलग करने योग्य अलमारी और दराजों के साथ आसानी से तोड़ने, जोड़ने या संशोधित करने के लिए डिजाइन और निर्माण किया गया था. गैस, पानी, बिजली और वैक्यूम सहित सभी सेवाओं की आपूर्ति फर्श के नीचे से गुजरनेवाले एक डक्ट के माध्यम से की जाती थी ताकि रखरखाव की पहुंच आसान हो और दीवारों को पाइपिंग और केबलिंग से मुक्त रखा जा सके.
सुरक्षित और स्वस्थ कामकाजी परिस्थितियों पर विशेष ध्यान दिया गया, साथ ही एर्गोनॉमिक्स, प्रकाश व्यवस्था और वेंटिलेशन पर भी काफी विचार किया गया. तकनीशियनों की सुविधा के लिए और श्रमिकों की अनावश्यक आवाजाही से बचने के लिए टेबल और बेंच की स्थिति और ऊंचाई डिजाइन की गई थी. तकनीशियनों की सुरक्षा के लिए विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए हुड के साथ धूआं निष्कर्षण प्रणालियां स्थापित की गईं. रासायनिक प्रयोगशालाओं में धुएं के कारण होने वाले क्षरण से बचने के लिए स्विचबोर्ड को प्रयोगशालाओं से बाहर गलियारों में लगाया गया. एसिड के छींटों या इसी तरह की घटनाओं के मामले में कई आपातकालीन शॉवर उपलब्ध कराए गए थे. हाबड़ा ब्रिज के निर्माण के लिए विकसित की उच्च क्षमता वाला स्टील हावड़ा ब्रिज के लिए स्टील का उत्पादन टाटा स्टील के लिए एक बड़ी चुनौती थी, क्योंकि इसने अभी तक कम मिश्र धातु संरचनात्मक स्टील के क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया था.
उपयोग किए जाने वाले स्टील की विशिष्टताओं में 37 से 43 टन प्रति वर्ग इंच की तन्यता ताकत की आवश्यकता होती है. इस ग्रेड को विकसित करना अनुसंधान एवं विकास विभाग का प्रमुख फोकस बन गया और शोधकर्ता इन सभी चुनौतियों पर सफलता पाने में सक्षम हुए और उनके द्वारा बनाए गए न्यू स्टील उत्पाद को टिस्क्रॉम नाम दिया गया. इसलिए टाटा स्टील के शोधकर्ताओं ने एक उच्च शक्ति संरचनात्मक स्टील विकसित करना भी शुरू कर दिया जो वेल्डिंग के लिए उपयुक्त था. वे 'टिस्कॉर' कहलाये. टिस्कोर की उच्च उत्पादन शक्ति ने पतले सेक्शंस में इसके उपयोग को सक्षम किया, जबकि इसकी वेल्ड क्षमता ने मालवाहक कारों, जहाजों, ट्राम और विभिन्न अन्य वाहनों में इसके उपयोग को बढ़ावा दिया.
सेकेंड वर्ल्ड वार के दौरान बुलेट-प्रूफ आर्मर प्लेट को बनाया द्वितीय विश्व युद्ध, अनुसंधान एवं विकास के शोधकर्ताओं के लिए एक चुनौती थी. सबसे उत्कृष्ट उपलब्धि बुलेट-प्रूफ आर्मर प्लेट का विकास और उत्पादन था. यह टाटा स्टील के शोधकर्ताओं के लिए एक श्रद्धांजलि थी कि आयुध शाखा, शिमला के मास्टर जनरल ने कहा था कि कंपनी की आर्मर प्लेट उत्कृष्ट और घरेलू विशिष्टताओं के अनुरूप थी. इस बुलेट-प्रूफ आर्मर प्लेट का उपयोग सबसे पहले उन बख्तरबंद वाहनों के लिए किया गया था जिन्हें रिवेटिंग द्वारा निर्मित किया गया था. इन रिवेट्स के लिए बुलेट-प्रूफ स्टील विकसित करने के लिए विशेष शोध किया गया था, जिसे गर्म स्थिति में चलाना पड़ता था. यह विकास भी सफलतापूर्वक पूरा किया गया और उत्पादित बख्तरबंद वाहनों को टाटानगर कहा गया.
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